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अज्ञेय की सम्पूर्ण कहानियाँ

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :656
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1473
आईएसबीएन :9788170280637

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प्रस्तुत है अज्ञेय सम्पूर्ण कहानियाँ...

Agyeya Sampurna Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मेरी कहानियाँ नयी है या पुरानी इस चर्चा में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं हैं। सभी साहित्य धीरे या जल्दी पुराना पड़ता है कुछ पुराना पड़ कर फिर नया भी होता है इस बारे में कुछ पहले भी कह चुका हूँ। नयी पुरानी की काल-सापेक्ष चर्चा में कहानी को उसके काल की अन्य कहानियों के संदर्भ में देखना चाहिए।

भूमिका

कुछ लेखक ऐसे होते होंगे जो अपनी रचनाओं के बारे में सोचते नहीं। मैं उनमें से नहीं हूं। बिना किसी तात्कालिक कारण के भी, जो लिख चुका हूं, उसके बारे में जब-तब सोचता रहता हूं क्योंकि विश्वास करता हूं कि इससे आगे जो लिखूंगा उसके लिए पटिया साफ़ हो सकेगी। फिर जब किसी पुस्तक की भूमिका लिखनी पड़ती है तब उसके बारे में और सोचना पड़ता है। उसे भी हितकर ही मानता हूं क्योंकि उस चिन्तन के सहारे लेखक उस रचना से थोड़ी और दूर हट जाता है, उसे कुछ तटस्थ होकर देख लेता है और उस निस्संगता को थोड़ा और पुष्ट कर लेता है जो रचना पूरी हो जाने के बाद उसके प्रति हो जानी चाहिए।

इर्द सरस्वत्यै इदं न मम।

लेकिन ‘अज्ञेय की सम्पूर्ण कहानियां’ नाम का संग्रह अपने सम्मुख देख कर ही थोड़ा आतंकित हो जाता हूं। ‘संपूर्ण’ क्या होता है ? यह ठीक है कि अब तक जितनी कहानियां लिखी हैं वे सभी इस संग्रह में हैं, इसलिए इसे संपूर्ण कहना सही है। लेकिन क्या मैंने यह स्वीकार कर लिया है-स्वयं अपने भीतर स्वीकार कर लिया और पाठकों के सम्मुख स्वीकार करने को तैयार हूं-कि अब और कहानियां लिखने की रुचि या संभावना नहीं है ?
लेकिन आतंक इसके कारण इतना नहीं है संपूर्ण विशेषण के साथ चीज को बाहर से और तटस्थ भाव से देखने की जो अतिरिक्त जिम्मेदारी आ जाती है, असल कारण वह है। उसके साथ मूल्यांकन की और आत्म-परीक्षण की एक बाध्यता आती है जिसके औचित्य को कोई भले ही स्वीकार कर ले, उसे सुखद तो नहीं मानता।

यों तो मैंने यह स्वीकार कर लिया है कि कहानी लिखना मैंने छोड़ दिया है-या कि कहानी मुझसे छूट गयी है। पिछले पन्द्रह-बीस वर्षों में मैंने कोई कहानी लिखी भी नहीं है। इस दूरी से अपनी कहानियों के प्रति ही नहीं, उन कहानियों के लेखक के प्रति भी एक अपेक्षया निर्वैयक्तिक भाव मेरे मन में है। उसके बूते पर शायद ऐसा भी दावा कर सकता कि उनका सही आलोचनात्मक मूल्यांकन भी कर सकता हूं। पर वैसा मूल्यांकन शायद यहाँ अभीष्ट नहीं है और भूमिकाएं उसके लिए होतीं भी नहीं। मेरी समझ में भूमिका का पहला और प्रमुख उद्देश्य यही होता है कि संप्रेषण और संवाद के लिए अनुकूल स्थिति उत्पन्न कर सके। मैंने हमेशा माना है कि रचना का पहला धर्म अभिव्यक्ति नहीं, संप्रेषण है। इस नाते प्रत्येक रचना स्वयं अपने लिए वह स्थिति उत्पन्न करती है जिसमें संप्रेषण हो-और अगर नहीं करती तो असफल होती है। इसलिए कहानियां या प्रत्येक कहानी तो अपना काम स्वयं करेगी ही-अथवा नहीं करेगी तो असफल होगी, लेकिन उस प्रक्रिया के भली-भांति संपन्न होने के लिए अनुकूल वातावरण के निर्माण में भूमिका का योग हो सकता है। संप्रेषण की स्थिति बनाने में रचनाकार सचेत अथवा अवचेतन भाव से कुछ दूरी की स्थापना कर लेता है जिस पर से संप्रेषण की प्रक्रिया सम्पन्न होगी बल्कि यह कह सकते हैं कि वे दो दूरियां निर्धारित कर लेता है जो इस प्रक्रिया के निष्पादन के लिए आवश्यक हैं : वस्तु से दूरी और पाठक से दूरी। पहली दूरी का संबंध यथार्थ के निरूपण और प्रतिष्ठापन से है; दूसरी दूरी संवाद की अवस्था और संबंध को निर्धारित करती है। पहली दूरी का निर्णय तो अन्तिम रूप से रचना में ही हो चुका होता है; दूसरी दूरी को ही भूमिका द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। वैसे यह स्पष्ट होना चाहिए कि पाठक के साथ संवाद की सही स्थिति बन जाने पर पहली दूरी का रूप थोड़ा तो बदल ही जाएगा; क्योंकि लेखक स्वयं जो देख चुका है उसे वह कैसे दर्शा रहा है इसके स्पष्टीकरण में दूसरी दूरी के निरूपण का भी योग होगा।

यथार्थ से दूरी, यथार्थ से रचनाकार के संबंध के बारे में विस्तार से कुछ कहना चाहता हूं और वही भूमिका का मुख्य भाग होगा। उसके पहले पाठक से दूरी को एक साथ ही निर्धारित करते हुए भी और उसका अतिक्रमण करने के लिए सेतु बनाते हुए भी यह कहना चाहता हूं कि जैसे मेरे कहानी-लेखन को मेरे संपूर्ण रचना-कर्म के संदर्भ में ही देखा जा सकता है और देखना चाहिए, उसी प्रकार मैंने कहानी लिखना क्यों छोड़ दिया इस प्रश्न का उत्तर भी संपूर्ण रचना-कर्म के संदर्भ में ही खोजना चाहिए।

मेरे लिए रचना-कर्म हमेशा अर्थवत्ता की खोज से जुड़ा रहा है। और यही खोज मुझे कहानी से दूर ले गई है। क्योंकि कहानी को मैंने उसके लिए नाकाफ़ी पाया। मैं जानता हूं कि इतने संक्षिप्त रूप से कही हुई बात नहीं भी समझी जा सकती। वर्तमान समय में ऐसी चर्चाएं और समीक्षाएं होती है कि उनमें जल्दी ही कुछ पद रूढ़ हो जाते हैं, इतनी जल्दी एक चालू मुहावरा बन जाता है जिसके बारे में सोचने की लोग या तो ज़रूरत नहीं महसूस करते या उसकी तकलीफ़ नहीं गंवारा करते। अर्थ, अर्थवत्ता, खोज इत्यादि सभी शब्द इस तरह के अवमूल्यन अथवा पूर्वग्रह के शिकार हो चुके हैं। ‘राहों का अन्वेषण’ अथवा ‘प्रयोग’ तो इससे एक पीढ़ी पहले ही मलीदा जा चुका है ! फिर भी मैं कहना चाहूंगा कि अन्वेषी रहा हूं और अब भी हूं, खोज के लिए किसी भी रास्ते को मैंने केवल पूर्वग्रह के कारण त्याज्य नहीं माना है। अर्थवत्ता में एक तरफ़ वस्तु की सही और मजबूत पकड़ पर और दूसरी तरफ़ उसके सही संप्रेषण पर मेरा समान बल रहा है। यानी खोज निरंतर यथार्थ की व्याप्ति और गहराई को समझने और संप्रेषण प्रक्रिया को अधिक समर्थ बनाने की रही है जो रास्ता इस खोज में मुझे और आगे ले जाता नहीं जान पड़ा है, चाहे इसलिए कि वह रास्ता ठीक नहीं है, चाहे इसलिए कि मेरे लिए वह दुर्गम है, उसे छोड़कर मैंने अपनी यात्रा के लिए दूसरा पथ बनाना शुरू कर दिया है; और पथ बनाते हुए भी अपने पाठक अथवा समाज को साथ लिये चलने या लिये रहने का प्रयत्न करता रहा हूं, क्योंकि असल बात तो समाज को ही साथ ले चलने की है, संप्रेषण की है, स्वयं कहीं पहुंच जाने-भर की नहीं; अभिव्यक्ति मात्र की नहीं।

यथार्थ की खोज-सार्थक यथार्थ की खोज-की अपनी यात्रा में अपने पाठक को साथ ले जाना चाहता हूं, इस अर्थ में नहीं कि जो पथ मैं पार कर चुका उसे पाठक के साथ दुबारा नापूं; इस अर्थ में कि एक मानचित्र के साथ पाठक को वह पूरा परिदृश्य दिखा दूं जिसमें से होती हुई मेरी यात्रा गुजरी। यह शायद मेरी कहानियों को ही नहीं, कहानी मात्र को और आज की कहानी-संबंधी चर्चा को एक परिप्रेक्ष्य दे सकेगा, जो मेरी समझ में सही परिप्रेक्ष्य होगा और जो यथार्थ का यथार्थ अर्थ करने में भी सहायक होगा।

कहानी का सम्यक् परिभाषा का प्रयत्न न करते हुए मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि कहानी एक क्षण का चित्र प्रस्तुत करती है। ‘क्षण’ का अर्थ हम चाहे एक छोटा काल-खंड लगा लें, चाहे एक अल्पकालिक स्थिति, एक घटना, प्रभावी डायलॉग, एक मनोदशा एक दृष्टि, एक बाह्य या आभ्यन्तर झांकी, समझ का एक आकस्मिक उन्मेष, संत्रास, तनाव, प्रतिक्रिया, प्रक्रिया...इसी प्रकार ‘चित्र’ का अर्थ वर्णन, निरूपण, रेखांकन, सम्पुंजन, सूचन, संकेतन, अभिव्यंजन, रंजन, प्रतीकन, द्योतन, आलोकन, रूपायन, जो चाहें लगा लें-या इनके विभिन्न जोड़-मेल। बल्कि और भी ‘महीन मुंशी’ तबीयत के हों तो हम ‘प्रस्तुत करने के अर्थ को लेकर भी काफ़ी छान-बीन कर सकते हैं। उस सबके लिए न अटक कर कहें कि कहानी क्षण का चित्र है; और क्षण क्या है इसकी हमारी पहचान निरंतर गड़बड़ रही है संदिग्ध होती जा रही है। और इससे भी विलक्षण बात यह है कि जब हम ‘क्षण’ की बात कहते हैं तो सिर्फ़ काल के संबंध में कुछ नहीं कह रहे हैं, बल्कि दिक् और काल की परस्पर-भेदक और परस्पर-भिन्न अवस्थिति के बारे में कुछ कह रहे हैं।

शेक्सपियर के एक चरित्र को ही लगा था कि ‘काल की चूल उखड़ी हुई है’-The time is out of joint; और शेक्सपियर की शती (और उसकी दैनिक अवस्था) तो अपेक्षया स्थिर, मूल्यों के मामले में आश्वस्त और भविष्य के प्रति आशा-भरी थी ! आज तो सचमुच टाइप ‘आउट ऑफ़ जॉएंट’ है; न केवल सभी कुछ संदिग्ध है बल्कि हमारा यह भरोसा भी दिन-प्रतिदिन उठता जाता है कि कुछ भी हम असंदिग्ध रूप से जान सकेंगे-और अनेकों कारणों के अलावा एक इस कारण से भी कि जानकारी हासिल करने के (या जानकारी को विकृत करके जबरन वह विकृति ही स्वीकार कराने के) साधन लगातार ऐसे लोगों के दृढ़तर नियंत्रण में चले जा रहे हैं जिन पर हमारा नियंत्रण लगातार कमज़ोरतर होता जा रहा है। यहाँ तक की हम स्वयं कहां खड़े हैं, और जिस युग अथवा काल खण्ड में जी रहे हैं वह वास्तव में क्या है, उससे हमारा रिश्ता क्या अथवा कैसा है, यही पहचानना हमारे लिए दिन-प्रतिदिन कठिनतर होता जा रहा है। थोड़ी-सी अतिरंजना करते हुए यहां तक कहा जा सकता है कि हम कब कहां हैं, इतना ही नहीं, हम हैं भी, इस पर भी हमारा प्रयत्य लड़खड़ा सकता है।
अगर काल की चूल उखड़ी हुई है तो यथार्थ का क्या होता है ? ‘यथार्थ की पकड़ हमें कैसे होती है ? कहानी में, और कहानी की आलोचना में, लगातार ‘यथार्थ की पकड़’ की जो चर्चा है, उस पकड़ या पहचान के बारे में जो दावे हैं, उनका क्या होता है ? स्वयं कहानी का क्या होता है, जो इस पहले-से ही चूल उखड़े हुए काल के भी केवल एक विखंडित अंश का चित्र है ? (और चित्र फिर काल में एक रचना है-यानी काल इसका एक आयाम है।)

अवश्य ही कहानी भी ‘आउट ऑफ़ जॉएंट होगी। आज है भी; और इसमें एक तर्क-संगति भी है-युक्ति-युक्तता है, सन्दर्भ-युक्तता भी है। कुछ लोग इसे स्पष्टता और बहुत-से लोग परिणामतः स्वीकार करते भी जान पड़ते हैं। लेकिन कहानी के संबंध में मेरे लिए जो प्रश्न उठते हैं, कहानी-संबंधी इस सारी चर्चा से उनका उत्तर नहीं मिलता। बल्कि उन उत्तरों की खोज भी उस चर्चा में नज़र नहीं आती और कभी-कभी तो ऐसा भी लगता है कि आलोचना करने और सिद्धांत प्रतिस्थापित करनेवाले के मन में ये प्रश्न उठे ही नहीं है।
यों तो हमारे लिए सबसे पहली समस्या ‘यथार्थ’ शब्द को लेकर ही उठ खड़ी होती है। इसे हम अर्थवैज्ञानिक समस्या कहकर कहानी की आलोचना के सन्दर्भ में टाल भी दे सकते हैं, लेकिन बुनियादी भाषिक प्रश्नों को टालकर आलोचना आगे बढ़ कैसे सकती है-सार्थक कैसे हो सकती हो ?

यथार्थ-यथा+अर्थ। जो अर्थ है उसको यथावत् प्रस्तुत करना (देखना पहचानना, संप्रेक्षित करना आदि), अथवा जो यथा-स्थिति है उसकी अर्थवान् प्रस्तुति अथवा उसके अर्थ की प्रस्तुति। अब ‘यथा’ और ‘अर्थ’ दोनों पक्षों को लेकर बहुत-से प्रश्न उभर आते हैं। यथा-स्थिति की पहचान कैसे होती है ? कौन करता है ? अर्थ हम कैसे जानते हैं ? क्या घटनाओं के अपने अर्थ होते हैं, या कि हम उन्हें अर्थ दे देते हैं ? अगर हम उन्हें अर्थ दे देते हैं, तो यह ‘हम’ कौन है ?- कहानीकार या आलोचक या पाठक ? हर हालत में क्या एक विषयी (सब्जेक्ट) वहां प्रस्तुत नहीं है ? और क्या अर्थ का निरूपण इसलिए विषयी-सापेक्ष या सब्जेक्टिव नहीं है ? और अगर ऐसा है तो क्या जहां से हम यथार्थ की चर्चा आरंभ करने चलते हैं- कि वह कुछ विषयी-निरपेक्ष और आब्जेक्टिव होता है—वहाँ से हट नहीं गये हैं ? फिर अगर अर्थ ‘बाहर से’ दिया गया है- चाहे किसी के भी द्वारा-तो उसका इस प्रकार से दिया गया होना ही क्या उसे यथार्थ से हटाकर अलग नहीं कर देता है ? क्या वह अर्थ वस्तु-स्थिति का या उसमें न होकर एक आरोपण नहीं सिद्ध हो जाता है ?

स्वयं घटनाओं का क्या कोई अर्थ होता है ? क्या घटना मात्र मूलतः और स्वाभाविकतः अर्थहीन या कि अर्थ-निरक्षेप नहीं होती ? (कार्य-कारण संबंध की बात अलग है ? लेकिन कहानी अथवा आख्यान-साहित्य में जब हम अर्थ की चर्चा करते हैं तो हमारा तात्पर्य कार्य-कारण-संबंध से नहीं होता। और यह बात तो है ही कि हमारे अनुभव में कार्य-कारण संबंध उलटकर आते हैं-यानी ‘भोगा हुआ यथार्थ’ में परिणाम पहले होते हैं और कारण बाद और अगर घटना मूलतः निरर्थक नहीं होती, उनमें अर्थ होता घटित है, तब क्या हमने यथार्थवाद की वृत्ति को ही छोड़कर आदर्शवादी आईडियलिस्ट अथवा आध्यात्मिक प्रतिज्ञा नहीं स्वीकार कर ली है ?

मैं जानता हूं कि इस भाषिक समस्या के मूल में शब्दार्थ और तत्त्वार्थ-संबंधी चिंतन की एक कमी है जिसके कारण बहुत-कुछ हमारी शिक्षा की स्थिति में हैं। सोचने का काम अंग्रेजी में होता है, फ़तवे देने का या मूल्यों-संबंधी अवधारणाएं घोषित करने का काम हिंदी में। यथार्थ और यथार्थवाद की चर्चा के पीछे अंग्रेजी शब्द के रिएलिटी और रिएलिज्म हैं। यह नहीं कि अंग्रेजी में भी इन शब्दों के साथ अर्थ-संबंधी समस्याएं नहीं जुड़ी हुई हैं, लेकिन अंग्रेजी से शब्द लेकर उनके हिंदी पर्याय प्रचारित करते समय हम मूल शब्दों के साथ जुड़ी हुई समस्याओं का आयात नहीं करते-इन कष्टकर अवयवों को वहीं पीछे यानी अंग्रेजी में ही छोड़ आते हैं ! उससे एक तो सोचने की लाचारी से छुटकारा मिल जाता है, दूसरे एक (भले ही निराधार) आश्वस्त भाव भी हम में आ जाता है : अंग्रेजी आलोचना में अगर ये शब्द प्रतिष्ठित हैं तो अवश्य ही उनकी प्रतिष्ठा का तर्क-सम्मत आधार भी होगा-हिंदी में उन्हें लेते हुए हमें कोई आशंका नहीं होनी चाहिए।

अंग्रेजी से आए हुए शब्द रिएलिटी और रिएलिज्म के साथ-साथ उनकी इन सत्ताओं के गुण भी हमारे बीच आ गए हैं। यथार्थ, यथार्थवाद, यथार्थवादी, सामाजिक यथार्थवाद, समाजवादी यथार्थवाद...लंबी परंपरा है। लेकिन अंग्रेजी शब्द के हिंदी पर्याप्त गढ़ते हुए हम अंग्रेजी की जो समस्याएं पीछे छोड़ आए थे। उनके बारे में चेत जाने पर क्या उनका निराकरण हम सहज ही कर ले सकते हैं ? ‘यथार्थ’ और ‘यथार्थवादी’ को छोड़कर यदि हम ‘वस्तु’, वास्तविक’, ‘वास्तिविकतावादी’ आदि शब्दावली अपना लें, तो भी कार्य-संबंधी जो प्रश्न उठते हैं उनका निरसन हो जाता है ? ‘तथ्य’ तो हो सकते हैं : और उन्हें (यद्यपि वह भी एक हद तक ही) विषयी-निरपेक्ष माना जा सकता है, घटना के तथ्य भी हो सकते हैं : और उन्हें (यद्यपि वह भी एक हद तक ही) विषयी-निरक्षेप माना जाता है, घटना के तथ्य भी हो सकते हैं और घटना का तथ्यमूलक प्रस्तुतीकरण भी किया जा सकता है। लेकिन यथार्थवाद अथवा वास्तविकतावाद क्या केवल एक तथ्यवाद ही है ? क्या शुद्ध घटना (इवेंट, हैंपनिंग एक्चुएलिटी), घटना का वैसा तथ्यमूलक रूप जो अच्छी ‘सच्ची’ अखबारी रिपोर्ट में मिल सकता है, और कहानी अथवा साहित्य की घटना (हमारे संदर्भ की रिएलिटी, अर्थात् विषयी की दृष्टि से देखी और सम्प्रेष्य बनाकर प्रस्तुत की गई घटना), एक ही है या हो सकती है ? या कि बुनियादी तौर पर उनका स्वभाव अलग-अलग होता है ? क्या ईमानदार रिपोर्टर और निष्ठावान् कहानी-रचयिता के लिए यथार्थ का रूप, अर्थ और संदर्भ मूलतः अलग-अलग नहीं है ? रचना-प्रक्रिया और संप्रेषण-प्रक्रिया वस्तु का कैसे और कैसा रुपांतरण करती हैं ?

मैं समझता हूं कि कहानी-उपन्यास-बल्कि साहित्य-मात्र-के संदर्भ में यथार्थ की चर्चा इन प्रश्नों का सामना करने की चुनौती देती है। मैंने नहीं देखा कि हिंदी में कहानी-उपन्यास की चर्चा में आलोचकों, अध्यापकों अथवा स्वयं रचनाकारों ने भी इनसे उलझने और इन्हें सुलझाने का विधिवत् प्रयत्न किया है। कहानीकारों की उक्ति में तो जहां-तहां इन समस्याओं की अन्तश्चेतन पहचान के संकेत मिल ही जाते हैं, अध्यापकों, आलोचकों ने तो इन्हें अभी तक छुआ ही नहीं है।
यथार्थ की पकड़ की इस शब्द-बहुल चर्चा में जो पिछले दस-पन्द्रह वर्षों की एक विशेषता रही है, लोग प्रायः दो चीजें मानकर चलते जान पड़ते हैं जो दोनों ही प्रश्नाधीन हैं। पहली यह कि ‘यथार्थ’ ‘बाहर’ होता है, सतह पर होता है; दूसरी यह कि यथार्थ इकहरा या एक-स्तरीय होता है। जो दीखता नहीं है, या थोड़ा और आगे बढ़कर कह लें कि जो ऐंद्रिय चेतना द्वारा ग्राह्य नहीं है, वह यथार्थ नहीं है-यह एक नए प्रकार का अंधापन है जिसे यथार्थ-बोध का नाम दिया जा रहा है। एक दूसरे प्रकार की संकीर्णता यह है कि ये ऐंद्रिय अनुभव भी-और हमारे सारे-राग बंध और अनुभव ही वास्तव में वे या वैसा नहीं है जैसा हम उन्हें अनुभव कर रहे हैं, बल्कि केवल कुछ बुनियादी संबंधों पर खड़ी की गई निर्मिति है, और ये बुनियादी संबंध किसी भी मानवीय उद्यम में निहित शोषक और शोषित के संबंध हैं। यानी यथार्थ वास्तव में एक अमूर्त प्रक्रिया ही है; मूर्त जो कुछ है वह केवल उस पर खड़ा किया गया एक ढांचा है। अगर बुनियादी यथार्थ अमूर्त है, तो यह दावा कैसे प्रमाणित किया जा सकता है कि केवल एक अमूर्तन ही यथार्थ सत्य अथवा सात्विक है, और दूसरे सब अमूर्तन और मिथ्या ? अगर यथार्थ अनेक-स्तरीय होते हैं तो केवल एक स्तर को देखने और बाकी सबको अनदेखा करने में कौन-सी बहादुरी या विशेष प्रतिभा है ?

अन्यत्र मैंने यथार्थ की पहेली को एक दूसरे रूप में रखा है। ‘‘अगर हम यथार्थ के ‘भीतर’ हैं तो उसे ‘देखते’ कैसे है ? अगर हम उसके ‘बाहर’ हैं तो वह ‘यथार्थ’ कैसे है ?’’ मैं जानता हूं कि समस्या का यह निरुपण एक सर्जक की समस्या का निरूपण है। यानी यह पहेली ‘वास्तविकता’ के अर्थ में ‘यथार्थ’ के बारे में नहीं है। संप्रेष्य रचना के रूप में ही यथार्थ की पहचान के बारे में है। लेकिन यहां वही तो प्रयोजनीय है-यथार्थ सत्ता के बारे में दार्शनिक अथवा पारमार्थिक प्रश्न उठाना हमें अभीष्ट नहीं है।

मैं मानता हूं कि यथार्थ इकहरा या सपाट या एक-स्तरीय नहीं होता। यह भी कहा जा सकता है कि कला के क्षेत्र में एक विशेष अर्थ में यथार्थ ‘अर्थहीन’ होता है, हमेशा अर्थहीन होता है : क्योंकि जिसे हम वस्तु-यथार्थ या विषयी-निरपेक्ष यथार्थ या आब्जेक्टिव रिएलिटी कहते हैं या कह सकते हैं, उसमें फिर अर्थवत्ता का प्रश्न ही कैसे और कहां उठता है जबकि अर्थ अनिवार्यतः अर्थ की पहचान करनेवाले के, विषयी के साथ बंधा है ? केवल सब्जेक्टिव यथार्थ में ही अर्थवत्ता का प्रश्न उठ सकता है; बिषयीगत यथार्थ ही कला का यथार्थ होता है और उसी में अर्थ हो सकता है। और इसलिए अर्थ की खोज हो सकती है। निःसंदेह वस्तु-जगत् के तथ्यों की, परिवेश की स्थिति और क्रिया-व्यापारों की, सामाजिक संबंधों की पकड़ या समझ विषयी की जैसी होगी, जीवन-मात्र से उसका जैसा संबंध होगा, उससे वह विषयीगत यथार्थ भी प्रभावित होगा। उसी पर उसके साथ पाए हुए अर्थ की मूल्यवत्ता निर्भर करेगी। लेकिन कला-वस्तु से परिवेश के संबंध का यह दूसरा वृत्त है। पहले और दूसरे वृत्त के बीच स्वयं कलाकार खड़ा है।

मैंने कहा है कि यथार्थ हमेशा अर्थहीन होता है। मैंने जो कुछ कहा उसमें यह भी निहित है कि उसके बावजूद कलाकार को अर्थ की खोज रहती है। इस निहितार्थ को आज के सब साहित्यकार स्वीकार नहीं करेंगे, ऐसा मैं जानता हूं। किन्तु मेरे लिए रचना-कर्म हमेशा अर्थवत्ता की खोज से जुड़ा रहा है। साहित्यकार के नाते मझे अर्थहीन यथार्थ की तलाश नहीं रहती और न है। आब्जेक्टिव संसार में अवश्य ही ऐसा यथार्थ है जिसमें अर्थवत्ता की खोज स्वयं निरर्थक है, यह मैं जानता हूं। उस अर्थातीत संसार से आगे बढ़ कर ही हम एक अर्थवान् जगत् की खोज में जाते हैं; और उस जगत् के निर्माण में स्वयं हमारा भी योग होता है। कोई चाहे तो यह कह सकता है कि जो सब्जेक्टिव है वह तो आत्यन्तिक रूप से अर्थहीन है; और यह कर बाहरी और भीतरी दोनों क्षेत्रों में एक अर्थहीन, एब्सर्ड संसार के निर्माण में प्रवृत्त हो सकता है। वैसे लोग हैं भी-वैसे साहित्यकार भी हैं। मैं वैसा नहीं मानता, वैसे निर्माण में मेरी रुचि नहीं है। मानव की मेरी परिकल्पना में वह अनिवार्यता अर्थवत्ता का खोजी और स्रष्टा है और यही उसके मानवत्व की पहचान है। अगर वह एब्सर्ड को प्रस्तुत करता भी है तो वह भी अर्थवत्ता की खोज की है यन्त्रणा दिखाने के लिए : अर्थवत्ता की खोज जिजीविषा का एक पहलू है और अर्थ या अर्थ की चाह को अन्तिम रूप से खो देना जीवन की चाह ही खो देना है। अब तक जो कुछ कहा गया है उसका आशय यह नहीं है कि विषयी-सापेक्ष अथवा सब्जेक्टिव यथार्थ एक उच्चतर कोटि है और विषयी-निरपेक्ष अथवा आब्जेक्टिव यथार्थ उससे नीचे है। ऐसा उच्चावच-क्रम स्थापित करना अभीष्ट नहीं है। लेकिन इससे उलटा तर्क भी सही नहीं है-यह कहने का कोई कारण नहीं है कि विषयी-निरपेक्ष विषयी-सापेक्ष यथार्थ से उच्चतर कोटि का होता है। जब तक अस्मिता है-कोई भी मैं ‘मैं’ है-दूसरे शब्दों में जब तक जीवन है-तब तक माना ही नहीं जा सकता-कोई मान नहीं सकता-कि मेरे ‘बाहर’ जो जीवन है वह उच्चतर अथवा श्रेष्ठतर है : इतना ही माना जा सकता है (और इतना मानना भी चाहिए) कि वह हीनतर भी नहीं है। वह केवल अलग है। कला के क्षेत्र में तो यह भी कहा जा सकता है कि विषयी-निरपेक्ष यथार्थ वहां कुछ होता ही नहीं : कला का सत्य होने के लिए ‘यथार्थ’ की भी प्रस्तुति में विषयी द्वारा उसके स्वायत्त किये गये होने की झलक मिलनी चाहिए। कला में यथार्थ हमेशा संवेदना से छनकर आता है और उसमें यह दीखना भी चाहिए कि वह संवेदना से छन कर आया है।

कला के यथार्थ में विषयी द्वारा उसके स्वायत्त किये गये होने की गूंज होती है। उस गूंज के सहारें ही हम यथार्थ के निरे बयान से रचना की अलग पहचान करते हैं, क्योंकि हम परख करते हैं कि वह केवल बाहर का यथार्थ है या कि रचनाकार ने उसे आत्मसात् कर ही लिया है। मेरे लिए रचना का यही इष्ट-या कि कह लिया जाये आदर्श-रहा है: उसमें वस्तु-सत्य का, बाहरी यथार्थ का, खरापन भी होना चाहिए और साथ ही आत्म-सम्बोध की, आभ्यन्तर यथार्थ की अर्थवत्ता भी होना चाहिए।

विचारशील पाठक पहचानेंगे कि यह पहले कही गयी बात की दूसरे तरीके से पुष्टि ही है। साहित्य वर्तमान की पहचान भी करता है और उस अर्थवत्ता के बृहत्तर आयाम से जोड़ता भी है। लेकिन यह फिर इकहरा समीकरण करना खतरनाक होगा। क्योंकि न तो वर्तमान की पहचान का सम्बन्ध केवल बाहरी यथार्थ से है और न बृहत्तर आयाम का सम्बन्ध केवल आभ्यन्तर यथार्थ से-और न इसका उलटा ही। यथार्थ की, बाहरी और बाहर की पहचान और अर्थवत्ता की खोज की अविराम परस्परता और परस्पर-भेदकता को अनदेखा करना साहित्य की समझ को इकहरा और छिछला कर देना होगा।
सभी साहित्य पुराना पड़ता है। लेकिन फिर उसमें से कुछ नया हो जाता है। जब साहित्य पुराना पड़ने लगता है तब जो काल की दृष्टि से अधिक निकट होता है वही अधिक तेजी से पुराना पड़ता हुआ अधिक दूर जान पड़ता है। उसी को लेकर हमें अधिक आश्चर्य या असमंजस होता है कि ‘अभी कल तक यह हमें नया कैसे लग रहा था ?’ इस प्रक्रिया को समझना बहुत कठिन नहीं है। कालांतर में जो साहित्य फिर नया हो जाता है-या ऐसा हो जाता है मानो पुराना पड़ा ही नहीं था-उसे हम ‘कालजित साहित्य’ कहते हैं। पर वास्तव में परिवर्तन का कारण जितना उसमें होता है, उतना ही हम में भी होता है। बदले हुए हम फिर एक ऐसे ठौर पर आ जाते हैं जहां वह साहित्य हमारे लिए एक नयी अर्थवत्ता पा लेता है-क्योंकि हम उसमें नयी अर्थवत्ता देखने लगते हैं।

साहित्य में जो ‘नयी विधाएं हैं-उपन्यास या कहानी-उनमें यह क्रिया अधिक तेजी से होती है। जो ‘पुरानी’ विधाएं हैं-काव्य या नाटक-उनमें यह क्रिया अपेक्षाकृत धीरे होती है। फिर प्रवृत्ति को ध्यान में रखें तो लक्ष्य कर सकते हैं कि किसी भी विधा में जो रचना-समूह अपने ही काल के यथार्थ के चित्रण पर अधिक बल देता है (और भाषा का मुहावरा और ‘तेवर’ कालिक यथार्थ का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है), यह अपेक्षया जल्दी पुराना पड़ जाता है क्योंकि कालिक यथार्थ जल्दी बदल जाता है, उसका पुराना पड़ना हम अधिक तीव्रता और स्पष्टता के साथ देख सकते हैं, इसलिए उससे बंधे साहित्य का पुराना पड़ना भी अधिक लक्ष्य होता है।

इसलिए कहानी सबसे जल्दी पुरानी पड़ती है। फिर कहानियों में वे या वैसी कहानियाँ और भी जल्दी पुरानी पड़ती हैं जो अपने समय के समाज के बाह्य यथार्थ से बंधी होती हैं। ऐसी कहानियां जब तक नयी होती हैं तब तक सबसे नयी दीखती है; उनकी तात्कालिक सम्पृक्ति और रेलैवैंस सबसे अधिक जान पड़ती है; पर जब ये नये पन से हटती है या नंवतर के समान्तर आती हैं, उनकी ‘प्रासंगिकता’ प्रश्नाधीन हो जाती है।
इस कथन की जांच किसी भी देश के साहित्य को लेकर की जा सकती है। कहीं भी काव्य उतनी जल्दी पुराना नहीं पड़ता; सर्वत्र कहानी ही सबसे जल्दी ‘डेटेड हो गयी होगी-और कहानी में वे कहानियां और अधिक या और जल्दी जो कि अपने समय के समाज-जीवन और उसके लोकाचारों-मुहावरों से बंधी होंगी।

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